इलाहबाद विश्विद्यालय के छात्रों का ट्विटर पर महाअभियान ! छात्र आन्दोलन के बदलते स्वरूप पर एक नज़रिया
समय के अनुसार परिस्थितियां निर्मित होती हैं। जो परिस्थितियों में सर्वाइव कर लेता हैं वहीं युग का निर्माण करता हैं। वर्तमान उन्हीं के नाम होता हैं। डार्विन महोदय ने यहीं कहा था ! पढ़ने वाले पाठक गण उपरोक्त कथन का संदर्भ आज ट्विटर पर हुए महाभियान से ग्रहण करें।
आज़ इलाहाबाद विश्वविद्यालय के छात्र संघर्ष के इतिहास में वो वक्त ऐतिहासिक हो गया तब इंडिया में ट्विटर के टॉप 3 ट्रेडिंग में छात्रों द्वारा उठाई जा रही आवाज़ की झलक सामने आने लगीं।
हैशटैग #AuPromote1stYear1stSem ट्रेंड करने लगा। पुरे इलाहाबाद विश्वविद्यालय और इससे संबद्ध कॉलेजों के हजारों छात्र ट्विटर पर अपनी मांग लेकर उतर आए। कोरोना काल में अभूतपूर्व परिस्थितियों के कारण छात्र और छात्राएं दूर दराज के अपने घरों में बंद हैं। असंवेदनशीलता की चरम सीमा पर आसीन इलाहाबाद विश्वविद्यालय प्रशासन ने छात्रों से संवाद के सभी रास्ते बंद कर रखें हैं। जब इस हालात में कोई सुनने वाला नहीं था तब इलाहाबाद युनिवर्सिटी फ़ैमिली और फाउंडर अंकित द्विवेदी के दिशा निर्देश तथा नेतृत्व में आम छात्रों ने ट्विटर को ही अपना हथियार बना कर इतिहास रच दिया। छात्रों ने अपनी बातें जोरदार तरीके से रखी हैं। उनकी आवाज़ की सनसनाहट से नींद तो उड़नी तय हैं। वैसे भी नींद कमजोर हैं। गाहे बेगाहें अखबार वाले इसकी सुचना भी देते रहते हैं। अब फैसलें का इंतज़ार है। लेकिन जब तक फैसला हक में नहीं होते चुप नहीं होना हैं।
आज़ जब हम एक छात्र संघर्ष के नए युग का सूत्रपात देख रहें थे तो विचारधारा और समझ के स्तर पर भिन्न व्यक्ति परिपक्वता और अनुभव में निम्नता के कारण दुख व्यक्त कर रहें थे। उनका दुःख था की क्या अब छात्र संघर्ष ज़मीन के बजाय सोशल मीडिया पर होगा ? क्या यह सफल होगा ? वो समझ नहीं पा रहें हैं की सोशल मीडिया पर छात्रों की आवाज का प्रभाव क्या होता है ? युग और परिस्थितियोंं के अनुसार अपने हथियारों को नुकीला करने और बदलने की कला ही मनुष्य को आदम काल से आधुनिक काल में लेकर आई है। हर आंदोलन का एक इतिहास होता है।
मैं जिक्र करना चाहता हूं आज़ के परिपेक्ष्य में कुछ पिछली घटनाओं का
कोरोना काल से पहले की बात है, सन 2019 ! इलाहबाद विश्विद्यालय में आम दिनों की तरह कक्षाएं चलती थीं, छात्र छात्राएं कैंपस को गुलज़ार किए रहते थे, लाइब्रेरी सहित अभी जगह पर तमाम चर्चा - परिचर्चा और पढ़ाई का जोर शोर चल रहा था।
यह वह वक्त था जब छात्रों को प्रतिनिधित्व से वंचित करते हुए छात्र संघ को बैन किया जा चुका था। छात्र संघ के पूर्व पदाधिकारी सहित तमाम छात्र नेता युनिवर्सिटी के तुगलकी फरमान का जोर शोर से विरोध प्रदर्शन कर रहें थे। भूख हड़ताल और आमरण अनशन का ना ख़त्म होने वाला दौर भी जारी था। तब अक्सर युनिवर्सिटी के अधिकारियों तथा वैसे लोग जो किन्हीं कारणों से छात्र संघ के खिलाफ़ थे , यह कहा करते थे की आम छात्र, छात्र संघ नहीं चाहते हैं, चंद छात्र नेता अपने फ़ायदे के लिए छात्र संघ चुनाव बहाल करवाना चाहते हैं।
यह भ्रम इनके दिमाग से निकालना जरूरी था ; तब अपने सीनियर छात्रों मार्गदर्शन में स्नातक द्वितीय, तृतीय वर्ष के सक्रिय छात्रों ने जिसमें इलाहाबाद यूनिवर्सिटी फैमिली पेज़ का फाउंडर अंकित द्विवेदी एक प्रमुख नाम थे, क्लास क्लास कैंपेन कर पढ़ने वाले आम छात्रों से एक हाथ में कॉपी और एक हाथ में किताब लेकर एक नियत तिथि को छात्र संघ भवन पर इक्कठा होकर अपनी आवाज़ बुलंद करने का आह्वान किया। मुझे वो दिन याद आता है तो बड़ा भावुक हो जाता हूं। जब हज़ारों छात्र अपनी क्लास का बहिष्कार कर नियत तिथि और नीयत समय में इकट्ठा हो गए। अपनी आवाज़ बुलंद कर दी ; इस सफलता से उत्साहित सबलोगों ने ऐसा आंदोलन एक बाद फिर निश्चित किया, ठीक 15 दिन बाद ; इस दिन छात्रों के अपत्याशित सहयोग और एकता से से युनिवर्सिटी प्रशासन और ज़िला प्रशासन के कान खड़े हो गए। हमारे वरिष्ठ सभी छात्र नेता गिरफ्तार कर लिए गए। असामाजिक तत्वों को भीड़ में घुसा कर उपद्रवियों ने यूनिवर्सिटी में जमकर आराजकता फैलाई ; प्रोफेसरों की गाड़ियां तोड़ दी गई। तत्कालीन चीफ़ प्रॉक्टर ने अपने जांच के बाद मीडिया में बयान दिया की इसमें विश्वविद्यालय के छात्र शामिल नहीं थे। बाहरी उपद्रवियों ने उत्पात मचाया हैं। ख़ैर हमने अपनी एकता दिखा दी थीं ; जैसे इलाहाबाद विश्वविद्यालय प्रशासन आज़ सब कुछ जानते हुए अंधा और बहरा बना हुआ है ठीक वैसे ही उस वक्त था। तमाम विरोध के बाद भी लूलू पुंजू छात्र परिषद के लिए चुनाव की की प्रकिया शुरू हुई आखिरी में इन्हें मुंह की खानी पड़ी। चुनाव में कोई कैंडिडेट ही नहीं खड़ा हुआ। यह थी छात्रों की जमीनी एकता !
आज़ हमने पूरे भारत को सोशल मीडिया पर अपनी वर्चुअल एकता दिखाई हैं।। आज़ मैं एक और बात अंडर लाइन कर के लिखना चाहता हूं की 2019 में छात्र संघ के समर्थन में जब छात्रों की एकजुटता दिखी थीं तो भारी भीड़ में हो हल्ला और नारेबाजी के बीच छात्राएं नहीं दिख रहीं थीं। वो दूर कहीं खड़ी होकर केवल भीड़ देख रहीं थीं। तमाम कोशिशों के बाद भी मेन स्ट्रीम आन्दोलन में उन्हें शामिल करना अत्यंत मुश्किल या कह लीजिए नामुंकिन था।
आज ट्विटर पर सोशल मीडिया कैंपेन में हमने एक बड़ी उपलब्धि हासिल उस वक्त कर ली जब देखा गया की छात्राएं बडी संख्या में इस कैंपेन में ना केवल सहयोग कर रहीं हैं। बल्कि पोस्टर गर्ल बन कर आन्दोलन के प्रसार की सबसे बड़ी कारण बनी हुई हैं। ऐसा जमीनी आन्दोलन में संभव नहीं था। आज़ के जबरदस्त और सफ़ल आन्दोलन का बड़ा श्रेय इलाहाबाद विश्वविद्यालय होनहार तेज़ तर्रार लड़कियों को भी जाता हैं। अगर इनकी बातें भी इलाहबाद विश्विद्यालय की तथाकथित ममतामयी प्रथम महिला कुलपति के को नहीं झकझोरती हैं तो यह मान लेना चाहीए की संवेदनशीलता केवल किताबों में दर्ज़ एक शब्द है वास्तविकता से इसका कोई सम्बन्ध नहीं है।
लेखक - राहुल कुमार पाण्डेय " रश्की"
समसामयिक विषयों पर त्वरित टिप्पणी कर्ता
एफबी पेज अपना एयू पर संपादक
एफबी पेज इलाहाबाद यूनिवर्सिटी फैमिली पर कार्यकारी एडमिन
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