जब उससे विछोह ( बिछड़ना ) हुआ तो वो समान्य प्रेमियों के ब्रेक अप जैसा कुछ नहीं था। यूं तो हम कई बार कभी 2 दिन या फ़िर कभी 5 दिनों के लिया बातचीत बन्द कर देते थे। फ़िर हमारी बातचीत किसी ना किसी बहाने शुरू हो जाती थीं। लेकिन यह विछोह था। हमेशा हमेशा के लिए जुदा होना यही था। कुछ दिनों के उसके ठहराव ने एक परत खोल दी थी। एक अनजान चेहरा दिखा था। जो उसने पूरे साल/समय छुपाए रखा। जुदाई के इस किस्से में बातचीत बंद करना कहीं नहीं था। एक दूसरे को नीचा गिराना/दिखाना भी नहीं था। अब मैं सहज तौर पर हाल चाल पूछ लेता। अपना बता भी देता। अब भी घंटों बात होती थीं। लेकिन कोई जुड़ाव नहीं था। उसकी मखमली से मखमली और प्यारी बातचीत व्यवहार जो समान्य रूप से मन मोह देने वाला होता था। बस अब झांसा लगने लगा। वो झांसा ही था। बहुत शातिराना आंदाज से धोखा कैसे दिया जाता है उसका ख़ूबसूरत अध्याय था। प्रेम में नौसिखुए के साथ कोई इस क़दर कैसे कपट कर सकता है यह उस समय समझ से बाहर की बात थी। 1990 में एक फिल्म आई थीं। उसका नाम था जुर्म ! मुझे फ़िल्म अपने कहानी और कलाकारों कि बदौलत याद नहीं हैं। बल्कि इसके दूसरे कारण है। इस फ़
" रश्की नामा " ब्लॉग के एक एकमात्र और नियमित लेखक राहुल कुमार पाण्डेय " रश्की " हैं। आप हिंदी साहित्य , राजनीति विज्ञान और अंतर्राष्ट्रीय संबंधों के गंभीर अध्येता हैं। समसामयिकी विषयों पर चिंतन और लेखन को लेकर सक्रिय रहते हैं। इस ब्लॉग पर व्यक्त विचार नितांत व्यक्तिगत हैं। उपलब्ध सामग्री राहुल पाण्डेय रश्की के स्वामित्व अधीन हैं। प्रकाशन हेतू अनुमती आवश्यक है। ब्लॉग से जुड़े समस्त कानूनी मामलों का क्षेत्र इलाहाबाद होगा।