लॉक डाउन में आपकी यादें !
2019 में कोई रात रहीं होगी। हम दोनों अपने-अपने रूम में खाना खाकर कुछ देर आपस में व्हाट्सएप पर बतिया लिए। हमने सोचा कि कुछ पढ़ लें , इस नियत से नेट ऑफ कर फोन रख दिया। इसके बाद कॉल आ गया। हमने बता दिया अब पढ़ने जा रहे हैं। उन्होंने कहा कि हम भी आ जाए साथ पढ़ने, मैंने बुला लिया। साथ में 2 बजे तक पढ़े होगे। फ़िर आराम करने लगें। बैठे बैठे कमर भी दुख गई होगी शायद इसी लिए लेट गए।
मेरे साथ एक बड़ी दिक्कत है कि अगर हाथ में मोबाइल हो तो सामने कितना भी प्रिय व्यक्ति बैठा हो मैं मोबाइल चलाने में व्यस्त हो जाता हूं। उस समय भी मैंने बैठ कर मोबाइल चलना शुरू कर दिया। इस पर उन्होंने गहरी आपत्ती दर्ज की.. जो शब्दों के रूप में ना होकर मोबाइल छीना झपटी के रूप में थीं।
मैंने कहा ठीक है रख देता हूं और मोमेंट के मुताबिक एक गाना लगा दिया " लग जा गले "! दो तीन घंटे की जबरजस्त पढ़ाई, रात के डेढ़ दो बजे का समय इमोशनल किए जा रहा था। गाने के साथ उन्होंने भी गुनगुनाना शुरू कर दिया। कसम से उस समय उनकी आवाज़ लता जी से भी प्रिय लग रहीं थीं। मैं मोबाइल में बज रहें गाने को भूल उनकी आवाज़ में डूबने लगा। मेरी नज़रें उनकी तरफ़ थी। वो अपनी पलकों को नीचे गड़ाए, अपनी अंगुलियों को एक दूसरे में फसा कर गाए जा रहीं थीं।
गाने के हर बढ़ते बोल पता नहीं क्यों सिहरन पैदा कर रहें थे। रोम रोम में तरंगे उमड़ रही थी। अचानक से पता नहीं क्यों मैंने उन्हें गाने से रोक दिया। वो हमेशा की तरह बिना कोई सवाल किए चुप हो गई।
मैंने कहा कि यार क्या गज़ब गाती हो, तुम्हारी आवाज़ मेरे रूह में उतर जा रहीं हैं। तभी उन्होंने टोक दिया, अच्छा मेरी आवाज़ ही केवल रूह में उतर रही हैं ? मैं कब उतरूंगी ? यकीन मानिए इस सवाल के बेहतर से बेहतर जवाब हो सकते थे, लेकिन उस वक़्त मैं निरुत्तर रह गया।
बात बदलने कि नियत से मैंने कहा कि यार मुझे तो गाने का और डांस करने का ख़ूब मन करता है लेकिन मुझे आता ही नहीं है। काश मैं भी अच्छा गाना गा पाता, साला गाना नहीं आता था इस चक्कर में चुनाव हार गया। उन्होंने कहा चलो गाना शुरू करो , मैंने कहा भक्क, बिल्कुल बकवास गाता हूं,
नहीं गाना ही है तुम्हें, उसने जिद पकड़ लिया, कहने लगीं तुम्हे फर्क ही नहीं पड़ता है। मेरे होने या ना होने का कोई मतलब ही नहीं हैं। मेरी कोई वैल्यू ही नहीं हैं। कुछ रोने - धोने जैसी शक्ल बनाई। लेकिन मुझे अब गाना नहीं आते है तो नहीं आता है, क्या किया जा सकता हैं। यहां तक तो स्थिति ठीक थी इसके बाद गडबड होने लगी। अब वो बच्चों कि तरह शरीर हिला डुला कर जिद करने लगी की तुम्हें गाना ही हैं। इससे आगे बढ़कर गुदगुदाने लगी। अब यह स्थिति मेरे नियंत्रण से बाहर की थीं। मुझे थोड़ा भी गुदगुदाना बर्दास्त नहीं होता।
आख़िर हार मान कर मैंने कहा चलो गाता हूं। लेकिन पूरा याद नहीं है, उन्होंने कहा ठीक है जितना याद हैं उतना ही गा दो।
मैंने अपनी गंदी सी आवाज़ में गाना शुरू किया, लग जा गले की.... फ़िर ...रात हो ना हो...
वो शायद पहली बार था कि किसी ख़्वाब में खोकर मैं ख़ुद को भूल चुका था। नज़रें नजरों में बस चुकी थी। बस गाए जा रहा था। यह नहीं पता कि मैंने क्या गया, कितना देर गा पाया लेकिन आज इतना ही याद हैं कि जब मैंने गाना बन्द किया तो वो झटके से आकर गले लग गई। मैंने उसे महसूस किया। उस वक़्त मैंने ख़ुद को संपूर्ण पाया। मुझे किसी और चीज़ की ज़रूरत महसूस नहीं हो रहीं थीं। मैं बस ठहर गया था। आत्मिक आनंद की अनुभूति उस छोटी उम्र में जैसे उन्होंने दिया उसे मैंने दोबारा आज तक नहीं पा सका। बस यहीं हसरत रहती है कि बस एक बार कोई ऐसे गले लगें की हमें किसी की ज़रूरत ही महसूस ना हो। उस समय मन जैसा अनुभव करता हैं बस उसे किसी भाषा में लिखना सम्भव ही नहीं हैं।
इन्हीं सारी बातों से निकलता हूं तो लॉक डाउन और कोरोना के बढ़ते मामले मूड बिगाड़ देते है।
लॉक डाउन ने जिंदगी तहस नहस कर रखीं है। इस छह महीने में मैंने जो खोया है उसकी कीमत कभी नहीं लगाई जा सकती हैं। जब कभी कभी कोई बात करने को नहीं होता है, किसी से दिल की बात बताने का मन नहीं करता हैं तब बस यादों में खोकर ही कुछ पाया जा सकता है। मैं आज कल जब किसी से बात नहीं करता रहता हूं तब निकल जाता हूं चुपके से अतीत में, वो पल फ़िर से जीने लगता हूं जो मेरे जीवन के सबसे खुशनसीब और यादगार रहें है।
लॉक डाउन में मैंने एक ही चीज अच्छी तरह से की है. वो है तमाम गाने सुन लेना। हिंदी, भोजपुरी, मैथिली, पंजाबी के साथ साथ बंगाली गाने भी सुनने लगता था। एक दौर में जब एकदम अकेला अकेला महसूस करता था तो गाने दोस्त हो जाया करते थे तब इलाहाबाद में अकेले था।
राहुल कुमार पाण्डेय रश्की
2019 में कोई रात रहीं होगी। हम दोनों अपने-अपने रूम में खाना खाकर कुछ देर आपस में व्हाट्सएप पर बतिया लिए। हमने सोचा कि कुछ पढ़ लें , इस नियत से नेट ऑफ कर फोन रख दिया। इसके बाद कॉल आ गया। हमने बता दिया अब पढ़ने जा रहे हैं। उन्होंने कहा कि हम भी आ जाए साथ पढ़ने, मैंने बुला लिया। साथ में 2 बजे तक पढ़े होगे। फ़िर आराम करने लगें। बैठे बैठे कमर भी दुख गई होगी शायद इसी लिए लेट गए।
मेरे साथ एक बड़ी दिक्कत है कि अगर हाथ में मोबाइल हो तो सामने कितना भी प्रिय व्यक्ति बैठा हो मैं मोबाइल चलाने में व्यस्त हो जाता हूं। उस समय भी मैंने बैठ कर मोबाइल चलना शुरू कर दिया। इस पर उन्होंने गहरी आपत्ती दर्ज की.. जो शब्दों के रूप में ना होकर मोबाइल छीना झपटी के रूप में थीं।
मैंने कहा ठीक है रख देता हूं और मोमेंट के मुताबिक एक गाना लगा दिया " लग जा गले "! दो तीन घंटे की जबरजस्त पढ़ाई, रात के डेढ़ दो बजे का समय इमोशनल किए जा रहा था। गाने के साथ उन्होंने भी गुनगुनाना शुरू कर दिया। कसम से उस समय उनकी आवाज़ लता जी से भी प्रिय लग रहीं थीं। मैं मोबाइल में बज रहें गाने को भूल उनकी आवाज़ में डूबने लगा। मेरी नज़रें उनकी तरफ़ थी। वो अपनी पलकों को नीचे गड़ाए, अपनी अंगुलियों को एक दूसरे में फसा कर गाए जा रहीं थीं।
गाने के हर बढ़ते बोल पता नहीं क्यों सिहरन पैदा कर रहें थे। रोम रोम में तरंगे उमड़ रही थी। अचानक से पता नहीं क्यों मैंने उन्हें गाने से रोक दिया। वो हमेशा की तरह बिना कोई सवाल किए चुप हो गई।
मैंने कहा कि यार क्या गज़ब गाती हो, तुम्हारी आवाज़ मेरे रूह में उतर जा रहीं हैं। तभी उन्होंने टोक दिया, अच्छा मेरी आवाज़ ही केवल रूह में उतर रही हैं ? मैं कब उतरूंगी ? यकीन मानिए इस सवाल के बेहतर से बेहतर जवाब हो सकते थे, लेकिन उस वक़्त मैं निरुत्तर रह गया।
बात बदलने कि नियत से मैंने कहा कि यार मुझे तो गाने का और डांस करने का ख़ूब मन करता है लेकिन मुझे आता ही नहीं है। काश मैं भी अच्छा गाना गा पाता, साला गाना नहीं आता था इस चक्कर में चुनाव हार गया। उन्होंने कहा चलो गाना शुरू करो , मैंने कहा भक्क, बिल्कुल बकवास गाता हूं,
नहीं गाना ही है तुम्हें, उसने जिद पकड़ लिया, कहने लगीं तुम्हे फर्क ही नहीं पड़ता है। मेरे होने या ना होने का कोई मतलब ही नहीं हैं। मेरी कोई वैल्यू ही नहीं हैं। कुछ रोने - धोने जैसी शक्ल बनाई। लेकिन मुझे अब गाना नहीं आते है तो नहीं आता है, क्या किया जा सकता हैं। यहां तक तो स्थिति ठीक थी इसके बाद गडबड होने लगी। अब वो बच्चों कि तरह शरीर हिला डुला कर जिद करने लगी की तुम्हें गाना ही हैं। इससे आगे बढ़कर गुदगुदाने लगी। अब यह स्थिति मेरे नियंत्रण से बाहर की थीं। मुझे थोड़ा भी गुदगुदाना बर्दास्त नहीं होता।
आख़िर हार मान कर मैंने कहा चलो गाता हूं। लेकिन पूरा याद नहीं है, उन्होंने कहा ठीक है जितना याद हैं उतना ही गा दो।
मैंने अपनी गंदी सी आवाज़ में गाना शुरू किया, लग जा गले की.... फ़िर ...रात हो ना हो...
वो शायद पहली बार था कि किसी ख़्वाब में खोकर मैं ख़ुद को भूल चुका था। नज़रें नजरों में बस चुकी थी। बस गाए जा रहा था। यह नहीं पता कि मैंने क्या गया, कितना देर गा पाया लेकिन आज इतना ही याद हैं कि जब मैंने गाना बन्द किया तो वो झटके से आकर गले लग गई। मैंने उसे महसूस किया। उस वक़्त मैंने ख़ुद को संपूर्ण पाया। मुझे किसी और चीज़ की ज़रूरत महसूस नहीं हो रहीं थीं। मैं बस ठहर गया था। आत्मिक आनंद की अनुभूति उस छोटी उम्र में जैसे उन्होंने दिया उसे मैंने दोबारा आज तक नहीं पा सका। बस यहीं हसरत रहती है कि बस एक बार कोई ऐसे गले लगें की हमें किसी की ज़रूरत ही महसूस ना हो। उस समय मन जैसा अनुभव करता हैं बस उसे किसी भाषा में लिखना सम्भव ही नहीं हैं।
इन्हीं सारी बातों से निकलता हूं तो लॉक डाउन और कोरोना के बढ़ते मामले मूड बिगाड़ देते है।
लॉक डाउन ने जिंदगी तहस नहस कर रखीं है। इस छह महीने में मैंने जो खोया है उसकी कीमत कभी नहीं लगाई जा सकती हैं। जब कभी कभी कोई बात करने को नहीं होता है, किसी से दिल की बात बताने का मन नहीं करता हैं तब बस यादों में खोकर ही कुछ पाया जा सकता है। मैं आज कल जब किसी से बात नहीं करता रहता हूं तब निकल जाता हूं चुपके से अतीत में, वो पल फ़िर से जीने लगता हूं जो मेरे जीवन के सबसे खुशनसीब और यादगार रहें है।
लॉक डाउन में मैंने एक ही चीज अच्छी तरह से की है. वो है तमाम गाने सुन लेना। हिंदी, भोजपुरी, मैथिली, पंजाबी के साथ साथ बंगाली गाने भी सुनने लगता था। एक दौर में जब एकदम अकेला अकेला महसूस करता था तो गाने दोस्त हो जाया करते थे तब इलाहाबाद में अकेले था।
राहुल कुमार पाण्डेय रश्की
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