मेरे आख़िरी कविता !
मैं कविताएं लिखता था
देश पर, दुनिया पर ,
समाज पर, समस्यायों पर
जब तुम मिली तो मैंने पहली बार
प्रेम पर कविता लिखी
तुम्हारे आगोश में
मैं डूब जाता था
जब मधुर ताल और लय सनी
तुम्हारी निगाहों से गुजरी
जुबानों से छनी
कविताएं सुनता था
प्रेम पंक्तियों की छत थी तुम
जाने के बाद जैसे जुबां सिल गए हो
गला बंध गया हो
मैं ऐसा ही हो गया था।
मेरी कविताएं
किसी की पसंदीदा नहीं रह गई थी
कोई नहीं था, जो हां हां..करें
साथ में सीढ़ियां चढ़ते हुए गुन गुनाने लगे
मेरी ही कविता
तुम्हारा जाना
मेरी कविताओं के सर से छत का जाना था
मुझे याद है हजारों दफा
मैंने टोका था तुम्हें
सुनो........... मेरी कविताएं तुम्हें बोर नहीं करती हैं।
तुम जवाब में हर बार कहती
नाक बड़ी है तुम्हारी
अरे ने नाक वाली बात
क्या मस्त जोक मारा था छत पर
और कितना हसें थे हमदोनो
लगभग आधे घंटे तक
एक दूसरे कि नाक को देख कर हसे थे
देखो ना, ये हसीं अब गुम हो गई है
तुम्हारे जाने और बाद
वापस लौटने से पहले
मैंने खोजने कि कोशिश की
यह गुमशुदा हसी
एक बार तो लगा कि मिल गई मुझे
बिल्कुल तुम्हारी तरह की हसी
लेकिन शायद वो भ्रम था
या कुछ और
लेकिन वो हसीं हमारी वाली नहीं थी
बे छत के जीता हूं
कोई इंतजार नहीं है
उस छत का.....
तुम्हारे बाद बस एक बार ढूंढा मैंने छत
ऐसा लगा जैसे मिल ही गया हो
लेकिन अब नहीं चाहिए कोई छत
जिसकी नीचे कविताएं पल सकें मेरी
नहीं चाहिए कोई जुबान
जिस पर मचल सके
कविताएं मेरी
हर रोज की तरह हाल बताते बताते
एक दिन चुप हो जाऊंगा
हमेशा के लिए
इसी लिए तुम पर आखिरी कविता लिख रहा हूं
यह दस्तावेज है, तुम्हारे मेरे प्रेम का
क्योंकि सम्भव नहीं है
किसी प प्रेमिका का आना
अनहद यह है कि हर अनाथ चीज को
सौतेला सम्बन्ध मिलता है।
मेरी अनाथ कविता तो
सौतेली छत नहीं चाहिए।
राहुल पांडेय 21/07/2020
मैं कविताएं लिखता था
देश पर, दुनिया पर ,
समाज पर, समस्यायों पर
जब तुम मिली तो मैंने पहली बार
प्रेम पर कविता लिखी
तुम्हारे आगोश में
मैं डूब जाता था
जब मधुर ताल और लय सनी
तुम्हारी निगाहों से गुजरी
जुबानों से छनी
कविताएं सुनता था
प्रेम पंक्तियों की छत थी तुम
जाने के बाद जैसे जुबां सिल गए हो
गला बंध गया हो
मैं ऐसा ही हो गया था।
मेरी कविताएं
किसी की पसंदीदा नहीं रह गई थी
कोई नहीं था, जो हां हां..करें
साथ में सीढ़ियां चढ़ते हुए गुन गुनाने लगे
मेरी ही कविता
तुम्हारा जाना
मेरी कविताओं के सर से छत का जाना था
मुझे याद है हजारों दफा
मैंने टोका था तुम्हें
सुनो........... मेरी कविताएं तुम्हें बोर नहीं करती हैं।
तुम जवाब में हर बार कहती
नाक बड़ी है तुम्हारी
अरे ने नाक वाली बात
क्या मस्त जोक मारा था छत पर
और कितना हसें थे हमदोनो
लगभग आधे घंटे तक
एक दूसरे कि नाक को देख कर हसे थे
देखो ना, ये हसीं अब गुम हो गई है
तुम्हारे जाने और बाद
वापस लौटने से पहले
मैंने खोजने कि कोशिश की
यह गुमशुदा हसी
एक बार तो लगा कि मिल गई मुझे
बिल्कुल तुम्हारी तरह की हसी
लेकिन शायद वो भ्रम था
या कुछ और
लेकिन वो हसीं हमारी वाली नहीं थी
बे छत के जीता हूं
कोई इंतजार नहीं है
उस छत का.....
तुम्हारे बाद बस एक बार ढूंढा मैंने छत
ऐसा लगा जैसे मिल ही गया हो
लेकिन अब नहीं चाहिए कोई छत
जिसकी नीचे कविताएं पल सकें मेरी
नहीं चाहिए कोई जुबान
जिस पर मचल सके
कविताएं मेरी
हर रोज की तरह हाल बताते बताते
एक दिन चुप हो जाऊंगा
हमेशा के लिए
इसी लिए तुम पर आखिरी कविता लिख रहा हूं
यह दस्तावेज है, तुम्हारे मेरे प्रेम का
क्योंकि सम्भव नहीं है
किसी प प्रेमिका का आना
अनहद यह है कि हर अनाथ चीज को
सौतेला सम्बन्ध मिलता है।
मेरी अनाथ कविता तो
सौतेली छत नहीं चाहिए।
राहुल पांडेय 21/07/2020
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