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उम्मीद और प्यार





रोज रात को सोते वक्त दुनिया से लगाई हुई अपनी तमाम उम्मीदें
तोकर सोता हूं । सुबह उठता हूं तो फ़िर यह दुनिया अपनी उम्मीद के आगोश में डूबा लेती है। जहां जाने का जी नहीं करता, जिनसे बात करने का दिल नहीं करता, जो लोग हर बात में दिल को दुख जाते है, उन्हीं लोगों के बीच , उन्हीं की शर्त पर जीना पड़ता हैं।

हमेशा से इस दुनिया में लोग अपनी जरूरतों को लेकर आगे बढ़े है। लेकिन कुछ लोगों में यह फर्क होता है कि वे अपने साथ दूसरे की जरूरतों का भी ध्यान रखते है. ध्यान रखने से मतलब ख्याल रखने का होता है।

जर्मनी की प्रसिद्ध शायर रहे सेंट विटकाविन्न ने अपने किताब "द इमेजिनेशन और लव" में लिखा है कि इस दुनिया में "जरूरतें" नहीं होती तो प्यार नहीं पैदा होता। वे इस बात से इंकार कर देते है की प्यार कोई रूह का मसला है

इस बयान का समर्थन करते हुए यह तर्क देते है कि व्यक्ति को चाहत होती है. वो चाहत कई रूपों, वस्तु आदि की हो सकती है। कोई रूप कि चाहत रखता है, तो कोई काम भावना की। उन्होंने आगे बढ़ कर यहां तक कहा है कि लोग अपनी भौतिक जरूरतों के लिए भी प्यार में फंस जाते है।

उन्होंने प्यार को विशुद्ध प्राकृतिक मानने से इंकार करते हुए कहा कि यदि यह प्रकृतिमय होता तो प्रेम की अधूरी कहानियां नहीं लिखी जाती। हर प्रेम कहानी अपने वास्तविक लक्ष्य को प्राप्त कर पाती. उनके इस मत की पर्याप्त आलोचना की जा चुकी है।

दरअसल हमने शुरुआत में खुद की उम्मीदों और दुनिया का जिक्र किया था. फिर सबका सोचना लाजमी है कि इसमें जर्मन चिंतक और उनकी प्रेम पर आधारित विचारधारा कहा से आ गई। मुद्दा यह है कि आपकी उम्मीदें उन्हीं से होती है जिनसे प्रेम होता है और प्रेम उन्हीं से होता है जिनसे जरूरत होती है।

सवाल यह उठता है कि क्या यह मान लेना चाहिए कि बिना जरूरतों के कोई भावना प्रकट नहीं हो सकती हैं ? चुकी प्यार एक भावना है अतः उसका जिक्र जरूरी हो जाता है।

                   शेष अगले भाग में......
                 
*हमसे मिलिए ब्लॉग आर्काइव के लिए राहुल कुमार पाण्डेय की लेख*

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